प्रेम एक अद्भुत एहसास! जिन्होंने सच्चा प्रेम किया है वहीं इस भावना को व्यक्त करने में सफल होते है अन्यथा नहीं। आज के दौर में सच्चा प्रेम ही नहीं होता। होती है केवल वासना और स्वार्थ युक्त प्यार जो प्रेम से बहुत ही निम्नस्तर का है।
जो लोगो ने प्रेम नहीं किया है वह इस भावना को केवल पागलपन और नौटंकी ही कहेंगे तो मेरी उन सभी से प्रार्थना है यह लेख ना पढ़े। सच्चे प्रेम की भावना को समझने के लिए प्रेमी होना आवश्यक है। किसी के प्रति प्रेम का सत्यापन के लिए उनकी भावनाए समझने के लिए उसका अनुभव आवश्यक है।
आज हम इसी विषय पर थोड़ी अनकही और अनसुलझी बात करेंगे। यह पर दिए गए सारे विचार मेरे स्वयं के है और किसी भी व्यक्ति से कोई भी संबंध नहीं रखता है ।
प्रेम एक अलौकिक भावना है। यहां पर मै निस्वार्थ प्रेम की बात कर रहा हूं स्वार्थ युक्त प्यार की नहीं! । पुनः मै यहां पर संक्षिप्त में बता देता हूं। प्यार में इंसान प्रेमी से कुछ पाने की चाह रखता है कोई भी चाह हो सकती है जैसे उन्हें पा लेना, या कुछ भी।
पर प्रेम में कोई चाह नहीं होती अपितु प्रेम में तो सामनेवाले पर स्वयं को न्योछावर करने की भावना होती है। उनकी खुशी के लिए कुछ भी करने को मन आतुर रहता है इसे कहते है प्रेम और जो स्वार्थ युक्त है वह है प्यार! प्रेम में इंसान प्रेमी की एक अत्यंत खूबसूरत तस्वीर दिखती है।
पूरे ब्रह्मांड में प्रेमिका से अधिक सुंदर कोई नहीं दिखता। चाहे वह अगर बदसूरत हो तो भी उनमें खूबसूरती ही दिखाई पड़ती है। यहां पर खूबसूरती प्रेमी की आंखो में होती है क्योंकि वह आंखे प्रेम से भरी हुई होती है इसलिए तो प्रेमी को प्रेमिका अत्यंत खूबसूरत दिखाई पड़ती है।
प्रेमिका की हर एक इच्छा को जैसे अपनी इच्छा हो इस तरह से स्वीकारता है। प्रेमी अपनी प्रेमिका में ही पूरा ब्रह्मांड देखता है। प्रेमी के लिए प्रेमिका और प्रेमिका के लिए प्रेमी ही सदगुरुदेव बन जाता है और जहां सदगुरुदेव मिला हो वहां पर बदसूरती कहां से होगी?
सदगुरुदेव से सुंदर यहां पर कुछ भी नहीं इसलिए जब अपने प्रेमी या प्रेमिका में सदगुरुदेव दिखाई पड़ता है तब वह सुंदर दिखाई देता है। कहने का तात्पर्य यहां पर केवल इतना ही है कि जिससे प्रेम होता है वहीं सबसे अधिक सुंदर बन जाता है।
प्रेम की भावनाओ की बात करे तो यह शून्य अहंकार, शून्य स्वार्थ, शून्य काम और शून्य वासना। इसमें ना कोई अहंकार होता है ना कोई भय! प्रेम ही एक मात्र ऐसी भावना है जिसमें भय और अहंकार नहीं होता। मीरा को जब विष का प्याला दिया गया था कृष्ण प्रेम के कारण तो मीरा ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया था।
प्रेम में तो स्वीकार के अतिरिक्त कोई और मार्ग ही नहीं होता। इसलिए तो जब मीरा द्वारिका पहोंची तो कृष्ण के अंदर समा गई! पूरी ज़िन्दगी मीरा ने कृष्ण के प्रति प्रेम रखा स्वीकार भाव से अहंकार और भय मुक्त भावना रखी तो कृष्ण ने भी सब स्वीकार कर लिया और मीरा को अपने अंदर समा लिया।
यह एक प्रतीक है कि जब आप अहंकार से मुक्त, भय से मुक्त प्रेम से भर जाते है तो सदगुरुदेव में समा जाते है। यह प्रेम का अंतिम लक्ष्य है जो सभी को प्राप्त करना ही है, इस जन्म ना सही, अगले जन्म में ना सही तो अनेकों जन्म के पश्चात पर सबका लक्ष्य तो केवल और केवल एक सदगुरुदेव में समा जाना या कहो लीन होना। यही हम सब का मुकाम है।
तो प्रेम करो प्यार नहीं क्योंकि मुकाम तक पहांचने के लिए प्रेम ही एक मात्र माध्यम है अन्य कोई मार्ग नहीं है। आप सभी धर्म ग्रंथ पढ़े, पुराण पढ़े या वेद, सभी मार्ग अंत में तो प्रेम तक पहोंचते है और मुकाम परमात्मा /सदगुरुदेव तक।
आवश्यक नहीं किसी विजातीय प्रेम ही हो! प्रेम किसी बंधन को नहीं स्वीकार करता। अगर प्रेम में बंधन है तो वह प्रेम नहीं है। प्रेम तो सम्पूर्ण मुक्त है और प्रेमियों को भी सभी बंधनों मुक्त करता है।
प्रेम किसी से भी ही सकता है, , मित्र से, सखी से, पिता से, माता से, पत्नी से, भाई या बहन से, या संतान से या सदगुरुदेवसे किसी प्रकृति से या किसी पत्थर से! प्रेम की कोई मर्यादा नहीं होती। मर्यादा का अर्थ है कुछ तो बंधन है!
जैसे राम जी मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए क्योंकि वह मर्यादा में बंधे थे, मर्यादा को लांघ नहीं सकते थे इसलिए वह बंधन में थे। जब कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम थे इसलिए उन्हें किसी मर्यादा या बंधन ने नहीं जकड़ा था। प्रेम है तो यह और वह में कोई भेद नहीं रहता।
प्रेम में ना मै रहता है ना तुम! प्रेम में तो यह सभी दीवारें टूट जाती है। प्रेम में केवल प्रेम ही बचता है। प्रेम को परिभाषित करना लगभग असम्भव है पर प्रेम को परिभाषित करना ही हो तो केवल दो शब्द ही है जो परिभाषित कर सकते है, “राधा कृष्ण” जो प्रेम से जुड़े थे।
ना कोई ओर संबंध, ना कोई रिश्ता, ना कोई स्वार्थ, ना कोई अहंकार ना कोई लालच थी। इसलिए तो राधा और कृष्ण का प्रेम सब लोगो के लिए सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बना हुआ है। अगर उनके इस प्रेम को ना समझे हम तो प्रेम को समझना कठिन ही है।
स्वयं प्रेम कर के देखो किसी से भी। पश्चात देखो कैसा परमानंद मिलता है! इसलिए तो लोग प्रेमियों को पागल कहते है। यह ऐसी बात है सभी पागलों की नगरी में एक अकलमंद आए तो लोग उसे पागल और बाकी सभी को अकलमंद समझे। किसी से निस्वार्थ प्रेम कर के देखो। स्वयं अनुभव करो और देखो।